MP News: मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का आज 60वां जन्मदिन: एक सरल राजनेता, एक कड़क प्रशासक
संघर्ष के रास्ते, दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते पहुंचे हैं इस मुकाम तक

भोपाल। डॉ. मोहन यादव मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और बाबा महाकाल के भक्त हैं, यह बात तो जगजाहिर है, लेकिन मुख्यमंत्री बनने तक का सफर तय करने के लिए किए गए संघर्ष की कई कहानियां भी हैं, जो कम लोगों को पता हैं। दृढ़ इच्छा शक्ति और संघर्ष की कहानियां ही हैं, जो उज्जैन की गलियों में पले-बढ़े और अभावों में जीने वाले मोहन को डॉ. मोहन यादव बनाती हैं।
उज्जैन की मिट्टी से उठकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में तपने वाले डॉ. मोहन यादव सरल स्वभाव का राजनेता और कड़क प्रशासक के तौर पर हैं। वे मिलने-जुलने में भले सहज दिखते हैं, लेकिन उनके सरकारी फैसले कड़क होते हैं। मोहन का बचपन उज्जैन की गलियों में अभावों में गुजरा है।
कहा जाता है कि वे मिट्टी से जुड़े राजनेता हैं, इसीलिए वे सबके दुख-दर्द को समझते हैं। ईमानदारी का जीवन जीने वाले पिता स्वर्गीय पूनमचंद यादव मिल में काम कर अपने बच्चों की परवरिश करते थे। मोहन यादव के चाचा की चाय की दुकान थी, जहां स्कूल से फुर्सत होने के बाद वे हाथ बटाया करते थे।
मोहन यादव ने घर के रोजमर्रा के काम करते थे, लेकिन पढ़ाई से किनारा कभी नहीं करते थे। उनकी बहन ग्यारसी देवी कहती हैं, मोहन भैय्या मेरा शुरू से मेहनती थे। खेती बाड़ी में भी जुट जाते थे। भैय्या ने पढ़ाई भी उतनी मेहनत से की है और हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होते रहे हैं।
टिकट का विरोध हुआ, तो लौटाने में देर नहीं की
मोहन यादव संघ की शाखा से निकले हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में रहे हैं, इसलिए पार्टी उनके लिए सर्वोपरि है। इसकी मिसाल बड़नगर का वह चुनाव है, जब पहली बार उन्हें टिकट मिला था। तब स्थानीय लोगों ने उन्हें बाहरी कहकर विरोध किया।
उन्होंने पार्टी को अपना टिकट लौटा दिया। यह आसान नहीं था। जिस दौर की राजनीति में टिकट नहीं मिलने पर नेता बगावत कर देते हों, उस दौर में मोहन यादव ने ना सिर्फ टिकट लौटाया, बल्कि अपनी बारी का पूरे इत्मीनान से इंतजार किया।
पिता कहते थे, तुम्हारे आने से हम बंध जाते हैं
एक साधारण परिवार से निकले मोहन यादव ने खुद यह वाकया सुनाया कि सीएम बनने के बाद जब वे असर उज्जैन के अपने पुश्तैनी घर पर जाते थे, तो पिता कहते थे तुम आते हो तो हम बंध जाते हैं। घर में जाम लग जाता है। बेटा प्रदेश का मुख्यमंत्री है, इसका कहीं कोई दंभ पिता को नहीं। उन्हें गर्व है, लेकिन अहंकार नहीं। वे मुख्यमंत्री बेटे को पहले की तरह खर्च भी देते थे।
कक्षा में उठे हर सवाल को किताबों में तलाशा
मोहन की शुरुआती शिक्षा उज्जैन में हुई। जब मास्टर जी सवाल करते थे, तब पहली पंक्ति से हर बार हाथ उठता था। हाथ उठाने वाले बालक के पास मास्टर जी के हर सवाल का जवाब था, लेकिन उसके एक सवाल का हल मास्टर जी के पास भी नहीं था कि उसके पिता के जीवन में इतना संघर्ष क्यों है। क्या अमीर-गरीब की लकीर मिट नहीं सकती।
सवालों के जवाब तलाशते हुए कब वह बालक अपने अध्यापक शालिगराम का पसंदीदा छात्र बन गया, किसी को पता नहीं चला। फिर तो अध्यापक ने उसे अपना बेटा मान लिया। फिर शालिगराम ने ही पढ़ाई-लिखाई से लेकर इस बालक के बाकी खर्चे भी उठाए। उस बालक का नाम मोहन था, जो अब डॉ. मोहन यादव के नाम से पहचाने जाते हैं।
उस बालक का जिसने पांचवी की छोटी कक्षा में उठे हर सवाल को किताबों में भी तलाशा। कहा जाता है कि कुछ नहीं कर पा रहे हो, तो राजनीति कर लो। तब कोई विज्ञान के साथ कानून की पेचीदगी समझ कर आया। प्रबंधन के पहलुओं को जानने के साथ राजनीति को शास्त्र की तरह आत्मसात करते डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की।
यह हौसला था, सिर्फ किताबी तैयारी नहीं थी। किशोरावस्था में संघ की शाखाओं में आत्मविश्वास का पाठ पढ़ा, नेतृत्व क्षमता और कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय करने का ककहरा सीखा। विद्यार्थी परिषद के जरिए राजनीति की नर्सरी में आए। यह उनके अंदर का आत्म विश्वास था, जब उन्होंने कहा था कि वे अफसर बनने की नहीं, अफसरों पर अधिकार करने की राजनीति करेंगे।